ओशो और रजनीश

ओशो और रजनीश
आइए ! यहां पर दो चार शब्द, शारांश रूप में रजनीश के विषय में भी जाना-देखा जाय । विस्तार से तो इन सब पर आगे चलकर इसी पुष्पिका में अथवा आवश्यकता महसूस हुई तो अगली पुष्पिका में विवेचन-व्याख्या सत्प्रमाणों सहित जानने-देखने को मिलेगा । तब तक यहां पर मूल बातों को शरांशत: जाना-देखा जाय तत्पश्चात् जो ''सच'' लगे-- महशूस हो, उसे स्वीकार कर अपने जीवन को सतपथ का सच्चा पथिक के रूप में ढाल दिया जाय । अपने को किसी भी गुरु-सद्गुरु के प्रति भाव-प्रवाह में अन्धभक्त बनकर न बहा दिया जाय । अपने मानव जीवन को खुदा-गॉड-भगवान रूप 'सत्य' से जोड़ते हुये भगवद् शरणागत रूप सतपथ पर रखते-रहते हुये सार्थक-सफल बनाया जाय ।

रजनीश एक प्रतिभावान दार्शनिक थे । इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि वह एक धर्मज्ञ-धर्मात्मा-महात्मा थे । इसका अर्थ यह भी नहीं हुआ कि वह सर्वज्ञ थे-किसी भी विषय पर बोल सकते थे । इसका अर्थ यह भी नहीं हुआ कि हर विषय पर उनकी बातें सही ही हों । नि:सन्देह सच्चाई यह है कि धर्म के विषय में वे बिल्कुल ही अनजान थे । धर्म का अ-आ-इ-ई भी नहीं जानते थे क्योंकि दर्शन शास्त्र पढ़कर दार्शानिक बना जा सकता है-- आध्यात्मिक गुरु और तात्त्विक सद्गुरु बनना तो दूर रहा, साधक ही नहीं कहला सकते-- ज्ञानी कहलाना तो और ही आगे की बात हो गई । वे योगी-साधक आध्यात्मिक भी नहीं थे ।

शिक्षा के क्षेत्र में दार्शनिक होना-बहुत बड़ा जानकार-विद्वान-सर्वोच्च होना है । सच्चाई यह है कि स्वाध्याय के समक्ष शिक्षा और स्वाध्यायी के समक्ष दार्शनिक ऊपर जाते समय नीचे गिरा हुआ एक पतित सांसारिक व्यक्ति है। अध्यात्म जहां से वास्तव में 'धर्म' में प्रवेश मिलता है और तब साधक कहलाने का अवसर प्राप्त होता है - अध्यात्मवेत्ता और तत्त्ववेत्ता तो बहुत-बहुत-बहुत दूर की बात है।

रजनीश एक प्रतिभावान दार्शनिक थे । वे स्वाध्यायी भी नहीं थे-आध्यात्मिक और तात्त्विक तो थे ही नहीं । वे स्वाध्यायी भी नहीं थे, अध्यात्म तो बहुत ही ऊपर का पद है, तत्त्ववेत्ता होने की तो कल्पना ही नहीं किया जा सकता है । उसने अपने प्रतिभा का दुरुपयोग किया । घोर महत्त्वाकांक्षी था, मिथ्यामहत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में धर्म और गुरु परम्परा का नाश करना चाहा ।

वर्तमान में ऐसा देखा जा रहा है कि कोई प्रतिभावान जन किसी क्षेत्र विशेष में जब कोई विशिष्टता प्राप्त कर लेता है तो अन्य क्षेत्र के लोग भी उसके पीछे-पीछे अन्धी दौड़ लगाना शुरु कर देते हैं । इधर समाज का इतना नैतिक पतन--इतना नैतिक पतन हो चुका है कि सम्मान के लोभ में प्रतिभावान महानुभाव को भी संकोच लगता है--शर्म आती है-- यह कहने में कि वह विषय क्षेत्र मेरा नहीं है( उस विषय में मुझे स्पष्ट जानकारी नहीं है । मैं उस विषय पर भाषण-प्रवचन नहीं कर सकता हूं । उदाहरणार्थ इतिहास में कोई विशिष्टता हासिल किया व्यक्ति भूगोल के सेमिनार (सभा) में भाषण देने लगे। अर्थशास्त्र में कोई विशिष्टता प्राप्त कर लिए तो भौतिक विज्ञान या रसायन विज्ञान के सेमिनार (सभा) को सम्बोधित करने लगे । ऐसा नहीं होना चाहिये, ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए । इस परमपरा के अन्तर्गत रजनीश भी चल दिये। विशिष्टता प्राप्त किए दर्शनशास्त्र में, प्रवचन करने लगे 'धर्म और गुरु' पर । भगवत्कृपा से मिली हुई प्रतिभा का घोर दुरुपयोग किया था। धर्म और गुरु का खण्डन करके या सेक्स को आगे करके देश क्या दुनियां के युवाओं को भी एक तरह की नास्तिकता और कामुकता का शिकार बना दिया । आकर्षक शीर्षकों में उनकी किताबें आज-कल भी समाज में धर्म जैसे पवित्रतम् विधान में जहर घोलकर युवाओं को धर्म के प्रतिकूल ले जाने में लगी हैं। नि:सन्देह रजनीश 'धर्म और गुरु' के लिए तो एक घोर कलंक ही था । है?

रजनीश और उनका प्रेम योग पर सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस 'मत' देखें
श्री रजनीश के अनुयायीगण से सद्भावना मूलक मेरा साग्रह अनुरोध रहेगा कि आप सभी श्री रजनीश से जो कुछ भी जाने-समझे हैं, वह सच्चाई और वास्तविक स्थिति के प्रति नाजानकारी एवं नासमझदारीवश श्री रजनीश के मिथ्या महत्तवाकांक्षा के शिकार होकर आप सभी धर्म के प्रतिकूल भरम के शिकार हो चुके हैं। मैं किसी दुर्भावना के अन्तर्गत यह नहीं कह-लिख रहा हूं। आप सभी तो भाव और प्रेम को बड़ा महत्व देते हैं । हम चाहेंगे कि उस भाव और प्रेम को 'सत्य' से जोड़कर सद्भाव और सत्प्रेम के अन्तर्गत मुझसे मिल-बैठकर, सत्यता और प्रेम को आधार बनाकर धर्म के वास्तविक सच्चे रूप को जानते-समझते, परख-पहचान करते हुये यदि मेरे साथ आप सभी को भी 'सत्य' ही दिखाई दे तो 'धम-धर्मात्मा-धरती' रक्षार्थ और 'सत्य-धर्म संस्थापनार्थ' सेवा-सहयोग में मेरा सहभागीदार बनकर महत्वपूर्ण यश-कीर्ति सहित मोक्ष (मुक्ति-अमरता) का भागीदार बनें। आप-हम सभी का परमकत्तव्य है कि पूरे भू-मण्डल से ही असत्य-अधर्म को समाप्त कर उस पर सत्य-धर्म को स्थापित करने में मेरे बढ़ते हुये कदम को सत्यता के आधार पर नैतिकता एवं धर्मिकता के अन्तर्गत सेवा एवं सहयोग देकर पुन: कह रहा हूं कि महत्वपूर्ण यश-कीर्ति सहित मोक्ष (मुक्ति-अमरता) के भी भागीदार बनें ।

श्री रजनीश तो अब रहे नहीं, मगर आप अनुयायीगण से सद्भाव एवं सत्प्रेम के अन्तर्गत यह कहना-बताना चाहूंगा कि रजनीश के प्रवचन से और दीक्षा से आप सभी ने जो कुछ भी जाना-समझा है, वह आप सभी के पास तो है ही, एक बार मुझसे भी 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' रक्षार्थ स्थिति को जानने-समझने का बिल्कुल ही निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से सत्प्रयास करें क्योंकि मेरे यहां अग्रलिखित प्रकार की जानकारियां सुस्पष्टता एवं प्रामाणिकता के आधार पर उपलब्ध हैं जिसे आप सभी प्राप्त कर सकते हैं ।

1. जड़ जगत् सहित शरीर और शिक्षा की उत्पत्ति-स्थिति-लय और कारण सहित( 
2. जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं और स्वाध्याय की उत्पत्ति-स्थिति-लय और कारण सहित( पुन: 
3. आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-दिव्य ज्योतिर्मय स: (शिव) और अध्यात्म की उत्पत्ति-स्थिति-लय और कारण की वास्तविकता सरहस्य पृथक्-पृथक् साक्षात् दर्शन सहित यथार्थत: जानकारी प्राप्त करते हुये परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान्-परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अलम् रूप गॉड शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वबोध रूप एकत्तव बोध रूप मुक्ति-अमरता के साक्षात् बोध रूप साक्षात् दर्शन और यथार्थत: जानकारी सहित प्राप्त कर हर प्रकार के जांच-परख के पश्चात् ही सही मगर पूरे भू-मण्डल पर ही, हो सके तो असत्य-अधर्म विस्थापन और सत्य-धर्म संस्थापन में, बार-बार कहता हूँ कि सेवा-सहयोग का भागीदार बनकर महत्वपूर्ण यश-कीर्ति सहित मोक्ष का भी भागीदार बनें । यह सब आप सभी को प्रलोभन नहीं दिया जा रहा है अपितु आप सभी में भाव और प्रेम का जो स्थान है, उसके चलते परम हितेच्छु भाव में परम कल्याण हेतु सद्भावना मूलक सुझाव है । इसमें किसी भी प्रकार का दुर्भावना न समझकर सद्भाव एवं सत्प्रेम ही समझा जाये तो नि:संदेह कल्याणकर होगा ।

रजनीश का 'सम्भोग से समाधि की ओर' अर्थात् रजनीश का सूफी ध्यान क्रिया रजनीश के कामदेव अथवा वात्स्यायन ऋषि का वर्तमान में प्रतिनिधि होने का ही एकमात्र परिचायक है । रजनीश का कामोत्प्रेरक सूफी ध्यान-साधना काम एवं साधनात्मक दिव्यत्तव दोनों का संयुक्त रूप कामदेव का ही साक्षात् उपस्थित रूप है क्योंकि ध्यान रहित होते तो असुर कहलाते और केवल ध्यान समाधि वाला होते तो शिव ( मगर दोनों का संयुक्त रूप होना-रहना कामदेव होने-रहने का परिचायक है । आप सभी रजनीश के अनुयायी, रजनीश (कामदेव) से ऊपर उठकर भगवत् प्राप्त होकर भगवन्मय होने-रहने का सत्प्रयास करें । सर्वप्रथम अपने आप 'हम' को तत्पश्चात् ज्योतिर्मय आत्मा-ईश्वर (भ्रामक शिवोहं, पतनोन्मुखी सोऽहँं, उर्ध्वमुखी हँऽसो, वास्तविक ज्योतिर्मय स:) शिव को और अन्तत: परमात्मा-परमेश्वर ( परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अलम्-गॉड-भगवत्तत्त्वम् ) को बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन करते हुये मुक्ति-अमरता के साक्षात् बोध को प्राप्त कर ही लेना चाहिये । जिद्-हठ छोडें, परमप्रभु से नाता जोडें ज़िससे जीवन का चरम और परम लक्ष्य रूप जीव को मुक्ति-अमरता तो मिले ही, जीवन को सर्वोत्ताम यश-कीर्ति भी मिले ।

रजनीश एक प्रतिभावान व्यक्ति तो थे ही सुशिक्षित और विद्वान भी थे, मगर उनकी वह प्रतिभा और विद्वता सही दिशा में जाने के बजाय मिथ्या महत्वाकांक्षा की पूर्ति में प्रवाहित होने लगी । उनके प्रतिभा और विद्वता का प्रवाह इतना तेज था कि वे उसे सन्तुलित नहीं कर पाये जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उन्हें कभी अपने को भगवान घोषित करना-कराना पड़ा तो कभी अपनी भगवत्ताा को नकार (अस्वीकार) कर बुध्द बनने और घोषित करने-कराने पर लगना पड़ा तो कभी अपने बुध्दत्व को भी नकार (अस्वीकार) कर अपने को ओशो बनने और घोषणा करने-कराने में लग गये । यदि वे जीवित रहते तो पता नहीं अपने को और क्या-क्या नकार (अस्वीकार) करते हुए और क्या-क्या बनते और घोषणा करते-कराते, कोई ठिकाना नहीं था क्योंकि वे कोई तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान वाले तो थे नहीं कि एकीकृत और स्थिर भाव रहता । ये सब तो उनके मिथ्या महत्वाकांक्षा के प्रवाह का पड़ाव था जो जीवित रहते तो पता नहीं और कहां-कहां यह पड़ाव पड़ता ।

रजनीश एक सुशिक्षित विद्वान-दार्शनिक अवश्य थे, मगर उनके शिष्यों-अनुयायियों को यह भली-भांति-- अच्छी प्रकार से जान-समझ लेना चाहिए कि सुशिक्षित विद्वान-दार्शनिक का अर्थ तत्त्वज्ञानी-भगवद्ज्ञानी- सत्यज्ञानी तो होता ही नहीं, योगी-आध्यात्मिक वाला ब्रम्हज्ञानी-आत्मज्ञानी भी नहीं होता । इतना ही नहीं जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं वाला विधान रूप स्वाध्यायी भी नहीं कहला सकता । यह तो संसार और शरीर- जिस्म-बॉडी के बीच और शरीर-जिस्म-बॉडी तक सीमित रहने वाला सुशिक्षित मात्र के अन्तर्गत ही होने-रहने वाला दर्शन शास्त्र और दार्शनिकता ही है । अर्थात् इसका अर्थ यह हुआ कि संसार ओर शरीर-जिस्म-बॉडी के बीच शरीर-जिस्म-बॉडी तक की जानकारी रूप शिक्षा के अन्तर्गत चाहे कोई कितना भी बड़ा और उच्च जानकारी-विद्वता वाला क्यों न हो, दार्शनिक-फिलास्फर ही क्यों न हो, उसे जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं की जानकारी भी नहीं हो पाती तो आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल- स्पिरिट-डिवाइन लाइट-लाइफ लाइट और परमात्मा- परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान्-परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप अलम्-गॉड शब्दरूप भगवान् को कैसे जान सकता है अर्थात् नहीं जान सकता । इसके बावजूद भी अपनी सुशिक्षा-भौतिक विद्वता के गरूर में कोई जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर के सम्बन्ध में प्रवचन (लेक्चर) देने लगे तो यह उसकी घोर मूर्खता है और जो कोई भी ऐसे घोर मूर्खों के सम्पर्क में आते हैं वे भी उस घोर मूर्खता के शिकार में फंसते जाते हैं । यही हाल रजनीश और उनके ओशो परिवार का है, ठीक यही हाल ।

रजनीश ने अपनी प्रतिभा और अपने दार्शनिकता रूप भौतिक विद्वता का घोर दुरुपयोग किया । गुरुत्व और धर्म के वास्तविक अस्तित्त्व-स्थिति को ही बदनाम-कलंकित और समाप्त करने तक की कुचेष्टा- कुप्रयास किया । 'सत्य सनातन धर्म' को किसी के बदनाम-कलंकित और समाप्त करने तक की कुचेष्टा-कुप्रयास करने के बावजूद भी 'सत्य सनातन धर्म' और सच्चा सद्गुरुत्व तो समाप्त होने की चीज है ही नहीं । यह तो भगवान्-भगवत्ता का अमरत्व से युक्त एक परमसत्य अस्तित्व वाला तत्त्वज्ञान-विधान है । कोई भी कितना भी हाथ-पांव चला ले-- चाहे कितना भी हाथ-पांव मार ले, इस वास्तविक 'सत्य सनातन धर्म' का अब तक न तो कहीं कुछ बिगड़ा है और न तो आगे कहीं कुछ बिगड़ेगा क्योंकि इसका संस्थापक और संरक्षक सीधे खुदा-गॉड-भगवान ही होता है ।

जब भी कोई व्यक्ति, कोई संस्था-वर्ग-समाज 'धर्म' को हानि पहुंचाने में लगता है और अधर्म का उत्थान-विकास-प्रचार-प्रसार-फैलाव करने में जुड़ जाता है तो परमधाम-पैराडाइज-बिहिश्त-अमरलोक का वासी खुदा-गॉड-भगवान् अपने धाम को छोड़कर 'धर्म- धर्मात्मा- धरती' की रक्षा हेतु इस भू-मण्डल पर अवतरित होता है और अपने समर्पित-शरणागत भक्तों-सेवकों- प्रेमियों को भक्ति-सेवा-प्रेम प्रदान करते हुये दुष्ट-दुर्जनों का नाश-विनाश और 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' की रक्षा-व्यवस्था भी करता-करवाता है । इस बात को अच्छी प्रकार से जान-समझकर ओशो परिवार को अपने धर्म-द्रोही-आसुरी प्रचार-प्रसार-फैलाव को बन्द कर देना चाहिये । यदि प्रचार-प्रसार-फैलाव करना ही है तो 'सत्य-सनातन धर्म' जो सर्वोच्चता और सम्पूर्णता को अपने में समाहित किये हुये और सर्वोत्ताम मानव जीवन विधान रूप परमसत्य विधान है, का ही क्यों नहीं किया जाय!

चाहे कोई रजनीश वाला ओशो परिवार का हो अथवा धर्म द्रोही (देव द्रोही) आसुरी सभ्यता-संस्कृति प्रचारक श्रीराम शर्मा वाला गायत्री परिवार-प्रज्ञा परिवार अथवा मिथ्या ज्ञानाभिमानी-मिथ्याहंकारी प्रजापिता ब्रम्हा कुमार-कुमारियों वाला व मिथ्याज्ञानाभिमानी-मिथ्याहंकारी आर्य समाजियों व ऐसे ही लक्षण वाले निराकार-निरंकार हरदेव वाले हों, चाहे पतनोन्मुखी (पतन और विनाश को जाने वाले) सोऽहँ वाले अथवा स्वाध्यायी आन्दोलन वाले पाण्डुरंग शास्त्री वाले हों अथवा मुरारी बापू, आशाराम व महामण्डलेश्वरों वाले हों अथवा जो कोई भी जिस किसी भी गुरु तथा तथाकथित सद्गुरु, तथाकथित धर्मोपदेशक वाले शिष्य और अनुयायी गण ही क्यों न हों, सभी से ही मेरा प्रेम-अपनत्व-सद्भाव भरा साग्रह अनुरोध है कि गुरु जी गण तथा तथाकथित धर्मोपदेशक गण तो अपने मिथ्या महत्वाकांक्षा और निकृष्ट स्वार्थ लोलुपता की पूर्ति में लगे हैं, मगर आप शिष्य-अनुयायीगण 'किस पूर्ति' में लगे हैं कि जिसके लिए इन आडम्बरी-ढोंगी-पाखण्डी- धूर्तबाज-छली-कपटी-धर्म द्रोही-आसुरी सभ्यता-संस्कृति वाले गुरुजनों और तथाकथित सद्गुरुजनों के पीछे लगे-बझे-सटे-चिपके हैं ? इनकी झूठी-झूठी महिमा गुणगान गा-गाकर और उसमें धर्म प्रेमी भगवद् जिज्ञासुओं को उसी मिथ्या ज्ञानाभिमान-मिथ्याहंकार और आसुरी सभ्यता- संस्कृति का भी शिकार बनाते हुए इन भोले-भाले धर्म प्रेमी भगवद् जिज्ञासुओं के धन और धर्म दोनों का दोहन-शोषण करने में लगे-लगाये हैं । आखिर इस कुकृत्य से आप सभी को मिलना-जुलना क्या है ? कुछ मिले-जुले ही तो क्या कुकृत्य ही किया जायेगा ? नहीं ! नहीं !! कदापि नहीं !!! नि:सन्देह गुरुओं में लगाव-चिपकाव के नाते मेरी ये उपर्युक्त सद्ग्रन्थीय प्रमाणों पर आधारित बातें थोड़े देर के लिये आप सभी को झकझोरे और थोड़ा-बहुत दु:ख-तकलीफ-कष्ट भी दें, मगर हर प्रकार से जांच-परख कर सच्चाई ऐसी ही हो तो कहा क्या जाय? आप लोग भी तो थोड़ा सोचिये-समझिये कि मैं इन लोगों की असलियत को जानते हुए भी आप सभी (शिष्य-अनुयायीगण) चाहे जिस किसी भी गुरु तथा तथाकथित सद्गुरु के ही क्यों न हों, आपके समक्ष इन लोगों की झूठी चाटुकारिता करते हुए झूठे गुणगान प्रस्तुत करूं तो क्या आप सभी बताइये कि आप सबके प्रति यह मेरा धोखा-धड़ी-कपट-छलावा नहीं होगा ? क्या मैं इसी धोखा-धड़ी-कपट-छलावा के लिए ही आप सबके बीच समाज में सच्चे धर्म-उपदेशक के रूप में घूम रहा हूं ? नहीं ! नहीं !! कदापि नहीं !!! ऐसा मुझसे सम्भव ही नहीं ! आप मुझे जो कहिये-- निन्दक कहिये, आलोचक कहिये-- गुरुजन और तथाकथित सद्गुरुजन को अपमानित करने वाला, गाली देने वाला कहिये-- जो-जो आपके भाव आवे, मुझको वो-वो कहिये, मगर मैं आप सबके समक्ष सत्य-धर्म संस्थापक और संरक्षक होने के नाते आप सबको आडम्बर-ढोंग- पाखण्ड-छल-कपट-धूर्तबाजी के शिकार होने से बचाते हुये खुदा-गॉड-भगवान् रूप परमसत्य से जुड़ने-जोड़ने वाला-- आप लोगों को सजग बनाना यानी भ्रम निद्रा से जगाने वाला अपने सत्य कर्तव्य का पालन करता ही रहूंगा। पुन: कह रहा हूं कि अपने सत्य कर्तव्य का पालन करता ही रहूंगा । पुन: तीसरे बार कह रहा हूं कि अपने ऐसे परम पवित्रतम् सत्कर्तव्य का पालन करता ही रहूंगा।

आप सभी उपर्युक्त पैरा के तथ्यों से दु:ख-कष्ट मनाते हुए मुझे जो निन्दक-आलोचक कहने-कहलाने में लगे हैं, क्या इससे आपको तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान प्राप्त हो जायेगा ? क्या इससे आपको करोड़ों-करोड़ों जन्मों के पाप-कुकर्मों से मुक्ति का बोध प्राप्त हो जायेगा ? क्या इससे माया बन्धनों में बंधकर चौरासी लाख के चक्कर में करोड़ों बार होते रहने वाले जन्म-मृत्यु रूप दु:सह दु:ख यातनाओं से मुक्ति का बोध प्राप्त हो जायेगा ? क्या आपको दु:सह पीड़ा-यातनाओं को प्रत्येक मृत्यु के रूप में देने वाले यमराज से सदा-सर्वदा के लिये मुक्ति पाकर अमरत्त्व का बोध प्राप्त हो जायेगा? आपको 
(1) संसार, 
(2) शरीर-जिस्म-बॉडी, 
(3) जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं, 
(4) आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह- नूर-सोल-स्पिरिट (भ्रामक शिवोहं-पतनोन्मुखी सोऽहँ-उर्ध्वमुखी हँऽसो- यथार्थत: ज्योतिर्मय स:) जीवन ज्योति रूपी यीशु-ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव और 
(5) परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह- खुदा-गॉड-परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अलम-गॉड शब्दरूप अद्वैत्तत्त्व बोध रूप एकत्त्वबोध की प्राप्ति रूप पांचों की पृथक्-पृथक् रूप में बात-चीत और साक्षात् दर्शन सहित सप्रमाण यथार्थत: जानकारी आपको क्या प्राप्त हो जायेगी ? पुन: शिक्षा (Education), स्वाध्याय (Self Realization), योग-साधना या अध्यात्म (Yoga or Spiritualization) और सत्यज्ञान रूप तत्तवज्ञान रूप भगवद् ज्ञान (True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE) --- इन चारों की पृथक्-पृथक् सम्पूर्णतया यथार्थत: जानकारी आपको प्राप्त हो जायेगी ? नहीं! नहीं !! कदापि नहीं!!! ऐसा हो ही नहीं सकता ! मुझे निन्दक-आलोचक कहते हैं तो कहते रहिये, मगर मैं नि:सन्देह परमसत्य के आधार पर कह रहा हूं कि मुझे निन्दक-आलोचक कहने से इन उपर्युक्त प्रश्नों का समाधान आपको उपलब्ध होने वाला नहीं है। ईमान-सच्चाई जांच-परख सहित मुझसे मिल कर 'तत्त्वज्ञान' को प्राप्त करने मात्र से ही उपर्युक्त सम्पूण्र् ा की सम्पूर्णतया उपलब्धि हो सकती है । मैं कहां कह रहा हूं कि बिना जानकारी और बात-चीत सहित पृथ्क्-पृथक् साक्षात् दर्शन पाये ही बिना जांच के ही मान लें । हां, सत्यता को अवश्य ही जान लें ।

वास्तव में यदि इन उपर्युक्त सभी प्रश्नों का ईमान-सच्चाई से सही समाधान आप सभी चाहते हैं तो मुझ (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) से कम से कम एक बार अपनत्व भरा शान्ति और प्रेम के माहौल में बिना भय-संकोच के सौहाद्र भाव से मिल-बैठ कर सच्चाई का जांच-परख ही क्यों न कर लिया जाय कि मैं निन्दक-आलोचक हूं अथवा ईमान-सच्चाई से परमसत्य का उद्धोषक और उसका ज्ञानदाता भी। आप सबके पास अपने गुरुजन तथा तथाकथित सद्गुरुजन से जो कुछ भी ध्यान अथवा तथाकथित तत्त्वज्ञान मिला हुआ है, वह तो आपके पास है ही और जो कुछ भी आपको जानकारियां-अनुभूतियां - दर्शन आदि-आदि हैं, वे सब तो आपके पास हैं ही । एकबार मुझसे मिलकर अपनी उपलब्धियों-प्राप्तियों का और मेरे तत्त्वज्ञान को जानकर क्यों नहीं तुलनात्मक जांच-परख कर-करा लिया जाय ? तब मैं आप सभी को जो जैसा निन्दक-आलोचक अथवा परमसत्य उद्धोषक- पूज्यनीय जैसा भी लगूं, वैसा ही आप सभी कहें । तब ही आप सभी का कथन सही और उचित होगा । बिना जाने-परखे मुझे निन्दक-आलोचक कहना आप अपने से ही तो पूछिये कि क्या यह उचित और सही है ? नि:सन्देह उत्तार मिलेगा 'नहीं' । जांचना-परखना कुछ कहने के लिये अनिवार्य होता है ।

विशेष नोट :- सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणों और आवश्यकता पड़ने पर एक-दूसरे के समर्पण-शरणागत के आधार पर प्रायौगिक आधार पर भी । उपर्युक्त समस्त प्रश्नों में से किसी की भी उपलब्धि आप शिष्यों-अनुयायियों, चाहे आप जिस किसी भी धर्मोपदेशक के ही क्यों न हों, को प्राप्त नहीं है । समस्त प्रश्नों वाली उपलब्धि तो आप सभी से बहुत-बहुत-बहुत ही दूर है । यदि आपको लगता हो कि उपर्युक्त पैरा के प्रश्नों वाली उपलब्धियां आपको हैं तो नि:सन्देह मैं उस उपलब्धि को आध-अधूरा-गलत प्रमाणित करने की खुली चुनौती देता हूं । कोई भी हो, आकर एक बार जांच-परख तो कर ले । वास्तविकता का -- असलियत का पता अवश्य ही चल जायेगा। जांच-परख में विचार-चिन्तन क्यों ? आइये ! आपका सहर्ष स्वागत है । ईमान-सच्चाई से सत्प्रमाणों के आधार पर बिना भय-संकोच के 'सत्य' को आधार बनाकर जांच-परख कर-करा लिया जाय । नि:सन्देह आप सभी जांच कर्ताओं का यदि सद्भावी होंगे तो परम कल्याण हो ही जायेगा । सांच को आंच क्या ? सब भगवत् कृपा।
-----------सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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