निरंकार और निरंकारी

बाबा हरदेव सिंह 
निरंकारियों के निरंकार को ही लीजिये कि निरंकार माने क्या ? थोड़ा सा भी गौर किया जाय तो अवश्य ही समझ में आ जायेगा कि निरंकार माने एक प्रकार की नास्तिकता, क्योंकि बीच में खुला स्थान रखते हुए एक हथेली नीचे और दूसरी हथेली उपर करके दिखलाना कि लो देखो तो दोनों हथेली के बीच में क्या है ? खाली है- आकाश है- बस और क्या ? यही तो निराकार है । बस यही निरंकार भगवान है- यह न जल सकता है , न मर सकता है, न कट सकता है आदि आदि । दोनों हथेलियों के बीच में है तो यही जीव-जीवात्मा-आत्मा है और जब उन्मुक्त खुला आसमान है तो वही सर्वव्यापी निरंकार भगवान है । थोड़ा सा गौर तो करें कि वास्तव में क्या यह नास्तिकता ही नहीं है ? अब प्रेम से रहो, हिलमिल कर रहो, आपस में संगठित होकर एक-दूसरे के सेवा सहयोग से, शिष्टाचार से रहते हुए खूब प्रचार-प्रसार करो । बस यही धर्म है। अन्तत: क्या मिला निरंकारियों को ? कुछ नहीं !

मगर एक बात है कि इन्हें झूठ बोलने को भरपूर मिला है । वह क्या कि ये मान बैठे हैं कि हमें सब कुछ मिल गया है । भगवान् का दर्शन हो गया है, वह निरंकार ही तो है । जबकि मिलता कुछ नहीं भी नहीं । सच्चाई यह है कि ये सभी भगवान् के नाम पर घोर नास्तिक है, झूठे हैं और समाज में पारिवारिक मायाजाल में जकड़े रहने पर भी सभी ही अपने को निरंकार कहते हैं जो झूठ ही तो है ।

धर्म के अन्तर्गत अथवा खुदा-गॉड भगवान् के स्थान पर ऐसी उल-जलूल मिथ्या संस्थायें भी स्थित-स्थापित होकर अति तीव्रतर गति से नास्तिकता का प्रचार-प्रसार करते हुए जनमानस को खुदा-गॉड-भगवान् के नाम पर नास्तिकता में भरमा-भटकाकर नास्तिकता में ढकेलते हुए धर्म पिपासुओं--भगवद् जिज्ञासुओं--सत्यान्वेषियों को निराकर-निरंकार रूप नास्तिकता में भरमा-भटका कर भटका-लटका दिया जा रहा है ।

आश्चर्य ! ऐसे नास्तिकता प्रधान आडम्बरी-ढोंगी- पाखण्डी तथाकथित सद्गुरुजन पर तो है ही कि आखिर ये तथाकथित धर्मोपदेशक लोग इस प्रकार के मिथ्या प्रलाप से क्या हासिल करना चाहते हैं? इनकी मान्यता में खुदा-गॉड-भगवान निरंकार-निराकार यानी कुछ है ही नहीं तो इस निरंकार-निराकार- की मान्यता से वे क्या प्राप्त करना चाहते हैं ? अपनी मिथ्या महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु ये तथाकथित धर्मोपदेशक लोग धर्म प्रेमी-भगवद् जिज्ञासु-सत्यान्वेषी सज्जनों के धन और धरम दोनों के दोहन-शोषण के सिवाय और कुछ कर ही-दे क्या सकते हैं, अर्थात् कुछ भी नहीं । नि:सन्देह ऐसे धर्मोंपदेशकों से किसी को भी क्या प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ! फिर ऐसों में चिपकना नादानी नहीं तो सत्यज्ञानी होना होगा क्या ?

आश्चर्य ! इन उपर्युक्त तथाकथित धर्मोपदेशकों पर तो है ही, इससे भी बड़ा और भारी आश्चर्य तो इनके शिष्य-अनुयायियों पर है कि इन लोगों को उनसे ( तथाकथित धर्मोपदेशकों से) कुछ भी न मिलने के बावजूद भी भरम-भटक फंस-चिपक-लटक कर उन्हीं की झूठी-झूठी महिमा गुणगान करने में मशगूल हैं--लगे बझे हैं । थोड़ा भी नहीं सोचते-समझते कि आखिर ऐसे झूठे नास्तिकता प्रधान ढोंगी-आडम्बरी-पाखण्डी तथाकथित सद्गुरु- धर्मोंपदेशकों का विरोध बहिष्कार करने के बजाय झूठे गुणगान से इनसे क्या मिलने वाला है अर्थात् कुछ भी नहीं। नि:सन्देह कुछ भी नहीं । फिर ऐसा झूठा गुणगान क्यों करें ?

क्या अजीब आश्चर्य है कि जिसको खुदा-गॉड-भगवान तो खुदा-गॉड-भगवान् है, आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर- सोल-स्पिरिट-ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि की तो कोई जानकारी है ही नहीं, जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं की भी लेशमात्र भी जानकारी नहीं है कि वास्तव में ये सब क्या हैं ? कैसे हैं ? कहां रहते हैं ? जानने-देखने को मिलते हैं कि नहीं और मिलता है तो कैसे-- आदि के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी न रहने के बावजूद भी ये निराकार-निरंकार वाला हरदेव भी सद्गुरु बनने-कहलाने लगा है । अपने को धर्मोपदेशक कहने-कहलवाने में लगा है ।

अब आप ही जानें-समझें कि ऐसे नाजानकार नास्तिक जन भी धर्मोपदेशक बनकर धर्मोपदेश करने लेगेंगे तो धर्म की जनमानस में क्या स्थिति होगी । ये भी अपने प्रवचनों और किताबों में बोलने-लिखने लगे हैं कि यह ( हरदेव ) सत्य को जनाता-दिखाता है-- सत्य ज्ञान देता है-- अपने शिष्य-अनुयायियों को सत्य--भगवान को जनाता-दिखाता है । इतना ही नहीं अब ये अपने को अवतार बनने-कहलवाने में लगा है । ऐसे झूठे नास्तिक-मिथ्या महत्वाकांक्षी जन भी जब सद्गुरु अथवा धर्मेंपदेशक बन-बनाकर समाज में बढ़ने-फैलने लगेगें तो उस समाज ;शिष्य-अनुयायियोंध्द का ह्रास-पतन और विनाश नहीं होगा तो और क्या होगा ? बिल्कुल ही पतन और विनाश इन सभी का होना ही है। यदि यें लोग इनसे अपने को बचाते हुए वास्तव में सच्चे तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान को पाते हुए सच्चे भगवदवतार को अपने को नहीं जुड़ जाते ।

नि:सन्देह ये उपर्युक्त कथन किसी निन्दा आलोचना के अन्तर्गत नहीं, अपितु मात्र सत्य ही नहीं बल्कि परमसत्य विधान पर आधारित और सद्ग्रन्थीय तथा प्रायौगिकता के प्रमाण से प्रमाणित है । यह हम महसूस कर रहे हैं कि गुरुत्त्व में आस्था-निष्ठा की मान्यता के चलते उनके शिष्यों-अनुयायियों को इसे पढ़कर थोड़ा झुझलाहट-दु:ख-तकलीफ अवश्य होगा मगर ईमान-सच्चाई से मुझसे मिलकर सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणों के आधार पर निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से जांच-परख करेंगे तो नि:सन्देह उपर्युक्त कथनों को अक्षरश: सत्य ही पायेंगे। बिलकुल ही सत्य ही पायेंगे। निरंकार और हरदेव के विषय में वास्तविक जानकारी प्राप्त करने के पहले इनका निराकार-निरंकार 'तत्त्वज्ञान' के किस श्रेणी में आता है, यह जान लेना यहां पर आवश्यक लग रहा है ।

वास्तव में 'तत्त्वज्ञान' के विषय में जानकारियाँ आप सभी को भगवद्कृपा से प्राप्त होती रही है और विभिन्न अध्यायों के माध्यम से हो भी रही हैं। जैसा कि आप सभी को बताया गया है कि 'तत्त्वज्ञान' में चार श्रेणियां होती हैं । नीचे से ऊपर को क्रमश: 
1. शिक्षा (Education) 
2. स्वाध्याय (Self Realization) 
3. योग-साधना अथवा अध्यात्म (Yoga or Spiritualization ) और 
4. तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान (True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE) 

क्रमश: नीचे से ऊपर को इन चार श्रेणियों में दूसरे श्रेणी वाला जो स्वाध्याय है, इसमें तीन अंग हैं-- (क) श्रवण (ख) विचार या मनन-चिन्तन और (ग) निदिध्यासन । 
तत्त्वज्ञान के उपर्युक्त चार श्रेणियों में से पहली श्रेणी जो शिक्षा है, यह पूर्णतया भौतिक या लौकिक है जिसके विषय में कमोवेश सारा समाज ही, खासकर सुशिक्षित समाज अच्छे प्रकार से परिचित है और तीसरा जो योग-साधना अथवा अध्यात्म है, को समाज का योगी-साधक अथवा आध्यात्मिक क्रिया वाले जानते हैं अथवा इससे परिचित हैं, मगर पहले और तीसरे के बीच वाला दूसरा जो स्वाध्याय है, की भी वास्तविक जानकारी चौथे तत्त्वज्ञान वाले तत्तवज्ञानदाता को ही स्पष्टत: होती है, पूरे ब्रम्हाण्ड में अन्यथा किसी को भी नहीं । इसीलिये दूसरा जो स्वाध्याय है, इसके तीन अंगों (श्रेणियों) में प्रथम स्थान 'श्रवण' को मिला । यानी स्वाध्याय की वास्तविक जानकारी प्राप्त करने के लिये तत्त्वज्ञानदाता तत्त्वदर्शी सत्पुरुष से सर्वप्रथम स्वाध्याय अथवा जीव-रूह-सेल्फ से सम्बन्धित अध्ययन विधान को अच्छी प्रकार से सुनना (श्रवण करना) और उसे दूसरे अंग (श्रेणी) वाले 'विचार या मनन-चिन्तन' के माध्यम से भलीभांति समझना पड़ता है कि जीव-रूह-सेल्फ की जानकारी से सम्बन्धित जो कुछ भी हम सुन रहे हैं, वह सही ही है कि नहीं । तीसरा अंग (श्रेणी) जो 'निदिध्यासन' है, यह जीव-रूह-सेल्फ के स्पष्टत: दर्शन से सम्बन्धित स्थिति है जो प्रायौगिक (Practical) पध्दति के अन्तर्गत प्राप्त होता है । यह प्राप्ति भी एकमेव एकमात्र तत्त्वज्ञानदाता तत्त्वदर्शी सत्पुरुष से ही सम्भव है। भू-मण्डल पर क्या, पूरे ब्रम्हाण्ड में ही किसी अन्य से सम्भव नहीं ।

यह उपर्युक्त तीन अंगों (श्रेणियों) वाले 'स्वाध्याय' में पहला जो 'श्रवण' है यह सबसे महत्वपूर्ण अंग (श्रेणी) है। मगर भूत के स्वाध्यायियों को और वर्तमान वाले स्वाध्यायियों को भी देखने-जानने-समझने से ऐसा जानने-देखने-समझने में मिलता है कि पहले वाले 'श्रवण' के स्थान पर मनमाना शास्त्रों-ग्रन्थों के पठन-पाठन को रखकर दूसरे अंग (श्रेणी) वाले 'विचार अथवा मनन-चिन्तन' को अपना सर्वेसर्वा (आधार-माध्यम और उद्देश्य) मान बैठते हैं और ऐसे ही अपने व्यवहार में भी स्वीकार करके रहने-चलने लगते हैं। ऐसा रहना-करना इनकी मजबूरी भी है क्योंकि भू-मण्डल पर पूर्णावतार के वगैर 'तत्त्वज्ञानदाता' तत्त्वदर्शी सत्पुरुष तो इनको मिलेगा नहीं तो फिर ये लोग स्वाध्याय के प्रथम अंग (श्रेणी) वाले जीव-रूह-सेल्फ की यथार्थत: जानकारी वाला सुनकर प्राप्त होने वाली समस्त जानकारियाँ यानी 'श्रवण' मिलेगा ही किससे और कैसे ? अर्थात् मिल ही नहीं सकता ।

यह उपर्युक्त तीन अंगों (श्रेणियों) वाले 'स्वाध्याय' में पहला जो 'श्रवण' है यह सबसे महत्वपूर्ण अंग (श्रेणी) है। मगर भूत के स्वाध्यायियों को और वर्तमान वाले स्वाध्यायियों को भी देखने-जानने-समझने से ऐसा जानने-देखने-समझने में मिलता है कि पहले वाले 'श्रवण' के स्थान पर मनमाना शास्त्रों-ग्रन्थों के पठन-पाठन को रखकर दूसरे अंग (श्रेणी) वाले 'विचार अथवा मनन-चिन्तन' को अपना सर्वेसर्वा (आधार-माध्यम और उद्देश्य) मान बैठते हैं और ऐसे ही अपने व्यवहार में भी स्वीकार करके रहने-चलने लगते हैं। ऐसा रहना-करना इनकी मजबूरी भी है क्योंकि भू-मण्डल पर पूर्णावतार के वगैर 'तत्त्वज्ञानदाता' तत्त्वदर्शी सत्पुरुष तो इनको मिलेगा नहीं तो फिर ये लोग स्वाध्याय के प्रथम अंग (श्रेणी) वाले जीव-रूह-सेल्फ की यथार्थत: जानकारी वाला सुनकर प्राप्त होने वाली समस्त जानकारियाँ यानी 'श्रवण' मिलेगा ही किससे और कैसे ? अर्थात् मिल ही नहीं सकता ।

इसलिये स्वाध्याय की श्रेणी में रहने-चलने के लक्षण वाले इधर 'श्रवण' से तो बंचित रह ही गये, उधर 'निदिध्यासन' भी इन्हें नहीं मिल सका क्योंकि निदिध्यासन भी एकमात्र पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता सत्पुरुष ही कर-करा सकता है । दुनिया के किसी भी ग्रन्थ में ही नहीं मिलेगा कि निदिध्यासन क्या है ? इसकी वास्तविक स्थिति और जानकारी क्या है ? केवल एकमेव एकमात्र तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु ही इसके वास्तविक स्थिति को जानता-जनाता है, अन्यथा कोई भी नहीं! कोई भी नहीं !!

अत: 'श्रवण' और 'निदिध्यासन' अर्थात् जीव-रूह- सेल्फ-स्व-अहं की यथार्थत: जानकारी वाले 'श्रवण' और दर्शन प्राप्त कराने वाले विधान रूप 'निदिध्यासन' दोनों से तो यह स्वाध्यायी समाज बिल्कुल बंचित ही रह गया । यानी स्वाध्यायी समाज जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं के स्पष्टत: साक्षात् दर्शन से तो बंचित रह ही गया, यथार्थत: जानकारी से भी बंचित हो-रह गया। अब इन लोगों के पास रह क्या गया, मात्र 'विचार या मनन-चिन्तन'। इन सभी लोगों की सारी जानकारी और सारी पहुंच इसी मात्र 'विचार या मनन-चिन्तन' तक सिमटकर रह गयी । प्रायौगिकता (Practical) नाम की कोई चीज इन लोगों के पास होती ही नहीं । विचार या कल्पना के अन्तर्गत चाहे जितनी ये दौड़ लगा लें, चाहे जितनी उंची उड़ान भर लें, मगर सच्चाई (सत्य) से तो ये वास्तव में बहुत बहुत बहुत ही दूर-पीछे छूटे रहते हैं । फिर भी ये अपने को किसी ब्रम्हज्ञानी और तत्त्वज्ञानी से कम नहीं समझते क्योंकि मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्या अहंकार इनका सहज स्वभाव ही हो जाया करता है । यही इनकी सहज स्वाभाविक स्थिति होती है । इसी वर्ग में महाराष्ट्र के स्वाध्यायी आन्दोलन वाले पाण्डुरंग शास्त्री, गुजरात वाले आशाराम, मुरारी बापू, रामकिंकर उपाध्याय, रजनीश, समस्त महामण्डेश्वरगण, तथाकथित भागवत कथा-गीताकथा को ज्ञानयज्ञ कहकर प्रचार करने वाले कथावाचकगण, चिन्मय मिशन के चिन्मयानन्द (मृत)-- वर्तमान तेजोमयानन्द, पाण्डीचेरी वाले अरविन्द (मृत)-- वर्तमान में अरविन्द सोसाइटी, प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी वाले आदि-आदि सहित प्रस्तुत शीर्षक वाला निराकार-निरंकार वाला हरदेव भी इसी वर्ग (श्रेणी) में आते हैं । इससे अलग अतिरिक्त कुछ भी नहीं ।

अजीब आश्चर्य की बात है ऐसे गुरुजनों के शिष्यों-अनुयायियों के प्रति कि इन शिष्य-अनुयायी गणों को मिलता तो कुछ नहीं, मगर अपने भाववश विचार- प्रवाह में बहकर विचार के अन्तर्गत जो कुछ भी बात-विचार तथाकथित गुरुजनों द्वारा इनके समक्ष रखा जाता है उसी को ये लोग जीव भी, ईश्वर भी, परमेश्वर भी, सत्य भी, सुनना भी, देखना भी, प्रैक्टिकल भी आदि-आदि सब कुछ मान बैठते हैं जबकि वास्तव में मिला होता कुछ भी नहीं और इसी मान्यता के आधार पर अपने तथाकथित गुरुजनों को भी अवतार मानने-घोषित करने-कराने और वैसा ही व्यवहार देने लगते हैं। बिलकुल अवतार का ही व्यवहार देने लगते हैं । क्या इससे भी बड़ा कोई और झूठ और आश्चर्य हो सकता है कि देखना तो देखना है, जानने को भी इन लोगों को जीव भी नहीं मिलता है, ईश्वर और परमेश्वर तो दूर रहा, फिर भी ये सब अपने को कुछ भी नहीं मिलने की स्थिति में होते-रहते हुये भी विचार-भाव में बहकर अपने को सब मिला हुआ मान बैठे रहते हैं । यह कितनी बड़ी बिडम्बना और कितना बड़ा आत्मघाती झूठ है । फिर भी वे सब इसको सत्य मानकर इसमें भरमें-भटके-चिपके-लटके हैं। यह इनकी अपने आप जीव के लिये कितनी बड़ी आत्मघाती स्थिति है, कहा नहीं जा सकता ।

ये शिष्य-अनुयायीगण थोड़ा भी सोचने-जानने- समझने की कोशिश नहीं करते कि पूरे सत्ययुग में देवलोक सहित पूरे भू-मण्डल पर एक समय में एक ही पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता श्रीविष्णुजी महाराज थे । ऐसे ही पूरे त्रेतायुग में देवलोक सहित पूरे भू-मण्डल पर ही एक समय में पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता एकमेव एकमात्र श्रीराम जी थे । ठीक ऐसे ही पूरे द्वापरयुग में देवलोक सहित पूरे भू-मण्डल पर ही एक समय में पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता एकमेव एकमात्र केवल श्रीकृष्ण जी महाराज ही थे । मगर आजकल वर्तमान में मात्र निराकार-निरंकार समाज में ही अवतार सिंह (मृत) भी अवतार, गुरुबचन सिंह (मृत) भी अवतार और वर्तमान में हरदेव सिंह भी अवतार और क्रमश: इनकी गद्दी पर जो जो बैठने वाले हैं, क्रमश: वे सभी अवतार हैं। यह अवतार की परिभाषा-जानकारी कहां से आ गयी ?
किस ग्रन्थ में ऐसी मान्यता है ? इन शिष्य अनुयायियों को क्या इतना भी नहीं सोचना चाहिए ?
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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