ॐ - वेद-आर्य और आर्य समाज


आर्यसमाजियों को ही देखिए कि वेद को स्वीकार करते हैं-- ॐ को स्वीकार करते हैं-- यज्ञ-हवन नित्य करते हैं मगर एक दयानन्द को छोड़ कर सबकी निन्दा करना, सबका खण्डन करना इनका स्वभाव बन गया है। मण्डन का तो इनके यहाँ कोई महत्त्व महत्ता है ही नहीं जबकि खण्डन है तो मण्डन भी अवश्य ही होना चाहिए । वेद को ही भगवान मानेंगे और श्रीविष्णुजी-रामजी और श्रीकृष्णजी की घोर निन्दा-आलोचना करते हैं । रामायण-गीता- पुरण-बाइबिल-कुर्आन को तो ये सब बिल्कुल ही नहीं मानते हैं। अवतारवाद के तो ये सब घोर शत्रु हैं । ये घोर पाखण्डी व झगड़ालू भी होते हैं । ये जितने ही पाखण्डी होते हैं, उतने ही झगड़ालू भी, और मिथ्याहंकार के तो ये पुतला ही होते हैं । नि:संदेह सनातन धर्म के ये दीमक रूप कीट जैसे ही होते हैं, जो सनातन-धर्म रूप वृक्ष को ही खा जाना चाहते हैं । सनातन धर्म का मूल आधार पूर्णावतार (श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी) हैं उन्हीं के ये घोर आलोचक-निन्दक होते हैं । सुनना-समझना तो इनका अपमान है । न कोई साधना और न कोई ज्ञान, मात्र दम्भ और अभिमान ।

मुझ को किसी की झूठी चाटुकारिता आती नहीं और सच बोलना अहंकार ही निन्दा करना है तो है! कहा क्या जाय ? किया क्या जाय ? निष्पक्ष भाव सत्य हेतु अनिवार्य होता है। निष्पक्ष भाव से जाँच करें । सच्चाई सामने आ ही जायेगी कि क्या ये बातें सत्य ही नहीं है ?

यहाँ पर मैं जिस किसी के सम्बन्ध में लिख रहा हूँ बिल्कुल ही भगवत् कृपा के आधार पर--तत्तवज्ञान के प्रभाव से, न कि अहंकार से । आप भी जरा सोचिए कि मुझे बोलने-लिखने की आवश्यकता ही क्या है, जबकि आप को सच्चाई को जनाना ही न हो । उपदेश देना-लिखना आदि सब कुछ तो ''सत्य'' को जानने के लिए ही है और सत्यता किसी के बारे (सम्बन्ध) में बोला-लिखा जाता है तो निन्दा-आलोचना कहलाता है-- अहंकार भासता है । मैं तो ऐसे किसी भी व्यक्ति की खोज-तलाश करता हूँ, जो मेरे द्वारा किसी के सम्बन्ध में कहे-लिखे हुए बात को गलत प्रमाणित कर दे । 26 वर्ष में अब तक एक नहीं मिला । फिर मुझे निन्दक-आलोचक-अहंकारी क्यों मान लिया जाता है ? एक बार मिलकर (मुझसे भी ) सच्चाई की जानकारी क्यों नहीं कर ली जाती है ? फिर मैं जैसा लगूँ वैसा कहा जाय। यही सत्य होगा। मैं आपका भला-कल्याण चाहूँ-करूँ और आप सब मुझे निन्दक आलोचक कहें । क्या यह उचित है, सही है ? भगवत् कृपा विशेष से, तत्त्वज्ञान के प्रभाव से, न कि अहंकार से मुझे जैसा दिखलायी देता है, मैं ठीक वैसा ही कहने का प्रयास करता हूँ। वैसा ही लिखता भी हूँ-- यह सत्य है । जितने भी ऋषि-महर्षि -ब्रम्हर्षि-यति- योगी- सिध्द-आलिम-औलिया-पीर- पैगम्बर- प्राफेट्स- स्वाधयायी-विचारक- चिन्तक-आध्यात्मिक-साधक योगी-सन्त-महात्मा- तीर्थंकर-समस्त वर्ग सम्प्रदाय के अगुआ-प्रमुख (गुरु-सद्गुरु) यदि मुझे गलत अथवा आधे-अधूरे ही दिखलाई दे रहे हों जिसका सही-समुचित प्रमाण भी उन्हीं के उपदेश और उन्हीं के सद्ग्रन्थ-किताब से ही स्पष्टत: मिल रहा हो जिसे मैं जनाता-दिखाता भी हूँ तो इस पर मैं क्या कहूँ ? क्या लिखूँ ? हाँ, उन्हीं के उपदेश और उन्हीं के मूलग्रन्थ से मेरी बातों का स्पष्टत: और पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता, तब मैं अपने को ही अहंकारी- अभिमानी मान लेता । इतना ही नहीं, मुझे श्री विष्णु जी-श्री राम जी और श्रीकृष्ण जी गलत अथवा आधो-अधूरे क्यों नहीं दिखलायी देते हैं ? जबकि मैं न तो किसी के प्रति दुर्भावित हूँ और न तो किसी का भी अन्धाभक्त हूँ। मैं न तो किसी का निन्दक हूँ और न तो बन्दक (बन्दना करने वाला) हूँ । हाँ ! खुदा-गॉड-भगवान के कृपा विशेष और तत्त्वज्ञान के प्रभाव से ही जो कुछ भी कह रहा हूँ । नि:सन्देह ही इसमें हमारा कुछ भी नहीं। शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर यथार्थत: ये चार हैं, मुझसे जानें-देखें-परखें-पहचानें और हर प्रकार से सत्य होने पर ही सही, मगर 'सत्य' को अवश्य स्वीकार करें क्योंकि अन्तत: इसी में ही परम कल्याण है । निश्चित ही इसी में परम कल्याण है, अन्यत्र कहीं भी नहीं। 
शरीर --------------- जीव -------------- आत्मा ------------------- परमात्मा
शरीर --------------- जीव -------------- ईश्वर -------------------- परमेश्वर
शरीर --------------- जीव -------------- ब्रम्ह --------------------- परमब्रम्ह
शरीर --------------- जीव -------------- शिव-शक्ति ----------------- भगवान्
जिस्म -------------- रूह --------------- नूर ---------------------- अल्लाहतआला
बॉडी --------------- सेल्फ -------------- सोल --------------------- गॉड
स्थूलशरीर ----------- सूक्ष्म शरीर --------- कारण शरीर ------------- महा(परम)कारण शरीर
शिक्षा -------------- स्वाध्याय ---------- अध्यात्म(योग) --------------- तत्त्वज्ञान
एजुकेशन ----------- सेल्फ रियलाइजेशन ---- स्पिरीचुअलाइजेशन --------------- नॉलेज
स्थूल दृष्टि ---------- सूक्ष्म दृष्टि ---------- दिव्य दृष्टि ----------------- ज्ञान दृष्टि
नर्क-स्वर्ग ------------ स्वर्ग-नर्क ---------- शिव (ब्रम्ह) लोक ------------- परमधाम 

वास्तव में यथार्थत: ये चार हैं । इन चारों को दिखलाने और मुक्ति-अमरता देने हेतु भगवान लेते अवतार हैं ।

सतयुग में श्रीविष्णु जी, त्रेतायुग में श्रीराम जी, द्वापरयुग में श्रीकृष्ण जी और वर्तमान कलियुग में कल्कि अवतार सिवाय (उपर्युक्त) चारों को पूर्णतया पृथक्-पृथक् बात-चीत सहित-विराट भगवान् सहित साक्षात् दर्शन व परिचय-पहचान कराने वाला चारों युगों में ही कोई दूसरा हुआ ही नहीं और है भी नहीं । चार तो चार हैं, उपर्युक्त चारों में पृथक्-पृथक् अन्तर सहित पूरे भू-मण्डल पर ही किसी को भी तीन की भी यथार्थत: स्पष्ट एवं सुनिश्चित जानकारी-दर्शन नहीं। दुनिया में किसी की जानकारी में यदि कोई है तो सत्प्रमाणों सहित दिखला दे। मैं चुनौती हारकर उसके प्रति समर्पित-शरणागत हो जाऊँगा । मेरे यहाँ भी समर्पण-शरणागत करने-होने पर उपर्युक्त चारों ही उपर्युक्त प्रकार से प्राप्त होता है-- होगा भी। कोई प्राप्त कर जाँच-परख कर सकता है। सत्प्रमाणीय आधार पर खुली छूट है । साँच को ऑंच क्या ? आप आकर-मिलकर जाँच क्यों नहीं कर लेते ?

यह उस भगवान् का ज्ञान है जिसके सम्बन्ध में न तो देवी-देवता ही जानते हैं और न तो महर्षिगण ही जानते है । सृष्टि में अन्य किसी की बात छोड़िये, सृष्टि रचयिता ब्रम्हा, देवराज इन्द्र और सृष्टिके संहारक शंकर भी जिसके स्तुति बन्दना भी लेशमात्र भी नहीं जानते तो और कौन है जो उस सर्व के जाननहार को उसके कृपा दृष्टिरूप तत्त्वज्ञान के वगैर उसे जान ले और ज्ञानदृष्टि के वगैर स्पष्टत: एवं सुनिश्चिततापूर्वक समस्त वर्ग-सम्प्रदायों के सद्ग्रन्थों से प्रमाणित रूप में बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन-दीदार कर ले (रामचरित मानस से गीता 10/2, भा0म0पु012/12/66, ऋग्वेद 1/164/38) । तत्त्वज्ञान भी केवल वही ही दे सकता है, दूसरा कोई भी नहीं। पूरे भू-मण्डल पर ही दूसरा कोई भी नहीं । एकमेव एकमात्र खुदा-गॉड-भगवान ही । उनके सिवाय अन्य कोई भी नहीं ।
--------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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